• चिर शत्रुओं की मेहमान.नवाजी की चुनौती

    भारत का प्रभामंडल विश्व कूटनीति में विस्तार ले रहा है, उन्हें दो नावों पर सवार होने के जोखिम पर भी ध्यान देना होगा।

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    पुष्परंजन
    जो विश्लेषक इस बात से प्रसन्न हो रहे हैं कि भारत का प्रभामंडल विश्व कूटनीति में विस्तार ले रहा है, उन्हें दो नावों पर सवार होने के जोखिम पर भी ध्यान देना होगा। सतर्कता गई, दुर्घटना हुई जैसी स्थिति से बचने के वास्ते विदेश मंत्रालय में किस तरह की तैयारी हो रही है, उससे वो तमाम पत्रकार भी अनजान हैं, जो रूटीन प्रेस ब्रिफिंग में जाते हैं।
    एक शुक्रवार से दूसरे शुक्रवार आते.आते तुर्किये के राष्ट्रपति रेज़प थयिप एर्दोआन के सुर बदल गये। समरकंद में जब वो प्रधानमंत्री मोदी से मिले, कश्मीर पर कोई बात नहीं की। मगर, संयुक्त राष्ट्र महासभा में पहुंचते ही कश्मीर का पुराना वायरस एर्दोआन पर सवार हो चुका था। क्या तुर्क राष्ट्रपति को यह सब करने का संकेत पुतिन की ओर से मिला है। समरकंद की बैठक में प्रधानमंत्री मोदी, पुतिन से बोल आये कि यूक्रेन से युद्ध करने का यह समय नहीं था। पुतिन तब चुप थे। शंघाई कारपोरेशन आर्गेनाइज़ेशन की शिखर बैठक के बाद फ्रांस ने जिस तरह मोदी के कथन का समर्थन किया, उससे अमेरिकी क्लब लहालोट था। वही क्लब कश्मीर के सवाल पर संयुक्त राष्ट्र में मौन है। हमारे विदेश मंत्री एस, जयशंकर भी संयुक्त राष्ट्र महासभा में बोल आये कि यूक्रेन युद्ध रोकें, और बातचीत की मेज़ पर बैठें। सोचिये, यदि पुतिन ने कह दिया कि कश्मीर पर भी बातचीत होनी चाहिए, तो कूटनीति किस करवट बैठेगी।


    भारतीय कूटनीति में नया बदलाव यह हुआ है, कि बोल पहले दिया जाता है, उसके परिणाम पर बाद में विचार होता है। शंघाई कारपोरेशन आर्गेनाइज़ेशन ;एससीओ, की शिखर बैठक का अजेंडा यदि यूक्रेन होता, तो भारत का इस विषय पर बोलना वाजिब था। फिर भी समरकंद का माहौल देखकर लगता था कि यूक्रेन युद्ध के बाद जिस तरह पुतिन को अलग.थलग करने के प्रयास चल रहे थे, उसे नहीं होने देंगे। पूरे कार्यक्रम में शी और पुतिन केंद्र में। एकतरफ़ा संदेश था कि अमेरिकी व पश्चिमी क्लब इन दोनों नेताओं को आइसोलेट नहीं कर सकता।


    एक डिज़ीटल प्रोडक्शन प्लेटफार्म है, रेडफिश मीडिया। फरवरी 2022 में उसने एक ख़बर फाइल की, कि कश्मीर दूसरा फिलिस्तीन बनने जा रहा है। इससे बहुत लोगों को लगा कि रूसी सरकार समर्थित मीडिया ने अपना तेवर बदल लिया है, और कश्मीर पर क्रेमलिन की नीतियां संशोधित होने लगी हैं। उस ख़बर के चौबीस घंटे बाद रूसी विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट किया कि ‘रेडफिश मीडिया‘ से सरकार को कोई लेना.देना नहीं है। कश्मीर, भारत.पाकिस्तान के बीच का मामला है, इसे उन्हें ही मिल.बैठकर सुलझाना है। इस स्पष्टीकरण से एक बात तो समझ में आ जा रही थी कि मास्को की नीतियां कश्मीर मामले में बदली नहीं है। मगर, छह.आठ माह बाद दिल्ली, मास्को के दामन पर यूक्रेन युद्ध के दाग़ दिखलाना शुरू करे, तो संबंधों में तल्खी आना स्वाभाविक मानिये। ऐसा लगता है कि देश में बेरोज़गारी, बेलगाम महंगाई का सारा ठीकरा यूक्रेन युद्ध फोड़ने का मन मोदी सरकार ने बना लिया है। यह जोखिम भरा क़दम होगा।


    तुर्किये के राष्ट्रपति रेज़प थयिप एर्दोआन कश्मीर को मेन स्ट्रीम मुद्दा बना रहे हैं, तो उसकी वजहें भी हैं। 19 फरवरी 1954 को एक समझौते के बाद कराची और अंकारा एक दूसरे के क़रीब आये थे। इसके प्रकारांतर 1955 में बगदाद पैक्ट, 1959 में सेंटो ;सेंट्रल ट्रिटी आर्गेनाइज़ेशन जिसमें पाकिस्तान.ईरान.तुर्की का गठजोड़ बना था। जुलाई 1964 में आरसीडी ;रीजनल डेवलपमेंट कोऑपरेशन‘ जैसे समझौतों के ज़रिये तुर्की और पाकिस्तान एक दूसरे के क़रीब होते चले गये। जनरल मुशर्रफ राष्ट्रपति बनने के अगले महीने 1999 नवंबर में तुर्की की यात्रा पर गये। जून 2003 में तुर्की के तत्कालीन प्रधानमंत्री रेज़प थयिप एर्दोआन जब इस्लामाबाद पधारे तभी कश्मीर इश्यू का बीजारोपण हुआ। 20 जनवरी 2004 को अंकारा और इस्लामाबाद के बीच समझौता हुआ, जिसमें आतंकवाद को रोकने के वास्ते एक्सपर्ट का आदान.प्रदान और इंटेलीजेंस शेयरिंग का अहद किया गया।


    जब आप तेंदुए से दोस्ती करते हैं, तो उसके आदमखोर होने का जोखिम बना रहता है। 19 साल पहले का वाकया याद दिलाते हैं, 15 और 20 नवंबर 2003 को इस्तांबुल में आत्मघाती हमलों में 63 लोग मारे गये थे। तब शक सीधा पाक समर्थित जिहादियों पर गया था। इस सिलसिले में पाक.अफ गान सीमा से कई अतिवादी पूछताछ के लिए उठाये भी गये। फिर धीरे.धीरे सब शांत हो गया। मई 2004 में पाक.तुर्की के बीच मिल्ट्री कंसलटेटिव गु्रप ;एमसीजी, भी बना। एर्दोआन दरअसल, सेंट्रल और साउथ एशिया में अपनी पहचान बनाये रखना चाहते हैं। कश्मीर उन्हें इस पहचान के वास्ते सॉफ्ट टारगेट लगता है। कश्मीर का मुद्दा उछालोए और चर्चा में रहो। मगर, एर्दोआन संयुक्त राष्ट्र महासभा को यह भी बताते कि कश्मीर के चरमपंथियों के पास से तुर्की में बने हथियार कहां से आने लगे।


    57 सदस्यीय आर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन ;ओआईसी द्ध के केवल पांच सदस्यों ने ‘कश्मीर कॉन्टेक्ट ग्रुप‘ बना रखा है। इसमें पाकिस्तान, सऊदी अरब, तुर्की, नाइज़र और अजरबैजान शामिल हैं। ओआईसी में ‘कश्मीर कॉन्टेक्ट ग्रुप‘ 1994 में बना था। उस समय आसिफ अहमद अली पाकिस्तान के विदेश मंत्री थे, और बेनज़ीर भुटटो प्रधानमंत्री थीं। ओआईसी का तब से दुरूपयोग हो रहा है। इस कान्टेक्ट ग्रुप की एक बैठक जुलाई महीने में अवश्य होती है, और कश्मीर में मौत के हवाले से भारत की मज़म्मत की जाती है। पाकिस्तानी प्रशासन कभी ओआईसी के कंधे से बंदूक चलाता है, तो कभी संयुक्त राष्ट्र से संबद्ध संस्थाओं के ज़रिये।


    ‘कश्मीर कॉन्टेक्ट ग्रुप‘ का अधिकेंद्र इस्तांबुल कैसे बना, इस सवाल को भी खंगालने की आवश्यकता है। मई 2017 में तुर्की के राष्ट्रपति रेज़प थयिप एर्दोआन जब भारत आये थे, उन्हें इस चिंता से अवगत कराया गया था। मगर, एर्दोआन पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। बल्कि, जुलाई 2017 में आबिदजान की ओआईसी की बैठक में यह बयान दिया गया कि कश्मीर में आतंकवाद को खुद भारत सरकार आगे बढ़ा रही है। आबिदजान की बैठक में पाकिस्तान की ओर से सरताज़ अज़ीज शामिल थे।


    हमारी कूटनीति के लिए जो कठिन समय आने वाला है, वो ये कि आग उगलने वाले नेताओं को 2023 में कैसे स्वागत करेंगे। समरकंद में शंघाई कोऑपरेशन आर्गेनाइजेशन ;एससीओ, शिखर बैठक में पीएम मोदी का संदेश था, ‘डेमोक्रेसी.डिप्लोमेसी और डॉयलाग, आज इसकी ज़रूरत है। इस नसीहत के साथ सवाल यह भी है कि भारत 2023 में ‘एससीओ‘ शिखर बैठक की जब अध्यक्षता करेगा, तब तक क्या यूक्रेन में युद्ध के हालात रहेंगे। पीएम मोदी ने जो कुछ पुतिन से कहा है, उसके निहितार्थ यही है कि युद्ध से हमारी अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई है। तेल.गैस का संकट, वहां से विस्थापित छात्रों के भविष्य का सवाल, और चरम पर चढ़ती जा रही महंगाई के पीछे कहीं न कहीं पुतिन की युद्ध नीति है। नरेंद्र मोदी पुतिन को जो नसीहत दे आये हैं, समरकंद पधारे बाक़ी शिखर नेताओं ने ऐसा कहने की ‘हिमाक़त‘ क्यों नहीं की।


    पीएम मोदी ने पुतिन से जो कहा, उससे वो नाइत्तेफाक़ नहीं हो सकते थेए और नाराज़ी भी व्यक्त नहीं कर सकते थे। उसकी वजह आर्थिक है। सऊदी अरब के बाद, भारत दूसरा देश है जो अपने कुल हथियार आयात का 49.4 प्रतिशत रूस से मंगाता है। रूस और भारत के बीच उभयपक्षीय व्यापार 11 अरब डॉलर का है, जिसे 2025 तक 30 अरब डॉलर तक ले जाना है। रूस से हम रूपये में विनिमय के ज़रिये कारोबार करें, इस हफ्ते इसी वास्ते स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को अधिकृत किया गया है। इरादा यह है कि इससे रूस को हो रहे 5 अरब डॉलर की वस्तुओं के निर्यात में वृद्धि हो।


    आठ सदस्यीय शंघाई सहयोग संगठन में इस समय चार बेलारूस, ईरान, अफग़ानिस्तान और मंगोलिया ऑब्जर्बर देश हैं। इनके अलावा 14 कुवैत, मालदीव, सऊदी अरब, मिस्र, कंबोडिया, अज़रबैजान, श्रीलंका, यूएई, म्यांमार, बहरीन, कतर, नेपाल, आर्मेनिया, तुर्की डॉयलॉग पार्टनर देश हैं। 2004 में मंगोलिया को एससीओ में आब्जर्बर का दज़ार् दिया गया था। 2005 में भारत, ईरान और पाकिस्तान इस कैटेगरी में आ गये। 2012 में अफ़ग़ानिस्तान आब्जर्बर देशों में शामिल हो गया। 2015 में बेलारूस को ‘एससीओ‘ ऑब्जर्बर देशों में स्वीकार कर लिया गया था। ऑब्जर्बर स्टेटस देने का सीधा अर्थ है देर.सवेर इन देशों को पूर्णकालिक सदस्य बनाना।


    ध्यान से देखें, तो 2004 में मंगोलिया और 2012 में अफग़ानिस्तान को आब्जर्बर का दज़ार् देने के बावजू़द ‘एससीओ‘ का पूर्णकालिक सदस्य बनाने में हील.हवाली की गई है। बेलारूस और ईरान को मेंबर बनाने के पीछे पुतिन ने जो प्रयास किये, उससे उनकी रणनीतिक व्यूह रचना को समझने की ज़रूरत है। 2010 से बेलारूस शंघाई सहयोग संगठन का डॉयलॉग पार्टनर रहा है। 2015 में बेलारूस को आब्जर्बर स्टेटस दिया गया था। यूक्रेन युद्ध में बेलारूस क्रेमलिन को कूटनीतिक और सामरिक मदद दे रहा था। 19 जुलाई, 2022 को राष्ट्रपति पुतिन तेहरान गये थे। उद्देश्य साफ था, यूक्रेन युद्ध पर ईरान का समर्थन हासिल करना। समरकंद में जो कुछ बुना गया हैए उससे साफ है कि आने वाले समय में ‘एससीओ‘ का इस्तेमाल, रूस और चीनी हितों के लिए होने वाला है। इसमें भारत की भूमिका कैसी होगी।


    भारत 2023 में अपनी कूटनीति को कितना संतुलित रखता है, इसे पूरा विश्व देखना चाहेगा। भारत क्वाड का सदस्य देश है, उसके दूसरे ध्रुव पर विराजे शंघाई सहयोग संगठन में भी उसकी भूमिका धीरे.धीरे बढ़ रही है। भारत की भूमिका अगले साल शंघाई सहयोग संगठन के मेज़बान देश की होगी। चीन के राष्ट्रपति से चुप्पी बनायेंगे, तो बैठक कैसे होगी। ‘एससीओ‘ का मुख्यालय तो पेइचिंग में है, शिखर सम्मेलन की तैयारी के लिए उससे संपर्क बनाये रखना होगा। पाकिस्तान के शासन प्रमुख को न्योता नहीं देंगे क्या, कई सारे सवाल हैं।
    यह जगज़ाहिर है कि जी.20 में कौन से देश हैं, और उनकी नीतियां क्या हैं। सितंबर 2023 में जी.20 शिखर बैठक को आहूत कराना भारत के कंधे पर है। जो विश्लेषक इस बात से प्रसन्न हो रहे हैं कि भारत का प्रभामंडल विश्व कूटनीति में विस्तार ले रहा हैए उन्हें दो नावों पर सवार होने के जोखिम पर भी ध्यान देना होगा। सतर्कता गई, दुर्घटना हुई जैसी स्थिति से बचने के वास्ते विदेश मंत्रालय में किस तरह की तैयारी हो रही है, उससे वो तमाम पत्रकार भी अनजान हैं, जो रूटीन प्रेस ब्रिफिंग में जाते हैं।
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